"मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता" - भगत सिंह

शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के सुप्रसिद्ध लेख "मैं नास्तिक क्यों हूँ" की समीक्षा

"प्राचीन काल के विद्वानों और चिंतकों के प्रयोगों तथा उद्गारों को आधार बनाकर अज्ञान के विरुद्ध आगे की लड़ाई लड़ने और इस रहस्यमयी समस्या का समाधान खोजने के बजाय हम निकम्मे लोग - हमने सिद्ध कर दिया है कि हम निकम्मे हैं - विश्वास की, अपने-अपने मतों में अटल और अडिग विश्वास की, चीख़-पुकार मचाते हैं। इस प्रकार हम मानवीय प्रगति को अवरुद्ध कर देने के दोषी हैं।"

अंग्रेजी पत्र 'द पीपुल' में 1931 में छपा लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं', भगतसिंह ने अपने अंतिम दिनों में फांसी की कालकोठरी में लिखा था। इस लेख में भगत सिंह ने सृष्टि के विकास और गति की भौतिकवादी समझ पेश करते हुए ईश्वर के अस्तित्व पर कई तर्कपूर्ण सवाल उठाए हैं और उसके पीछे किसी मानवेतर ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व की परिकल्पना को वैज्ञानिक ढंग से निराधार सिद्ध किया है। इस लेख में वे संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ-साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और वर्गभेद की स्थितियों को ईश्वर के अस्तित्व से जोड़कर देखते हैं।

भगतसिंह लिखते हैं, ऐसा करने के कारण मेरे सामने एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं अहम्मन्यता (घमंड) के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता हूं? इस लेख में आगे वे इसी सवाल की जांच-पड़ताल करते हैं और अपनी बातों को तर्कों से साबित करते हैं। वे कहते हैं, मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे कभी ऐसे सवाल का सामना करना पड़ेगा। लेकिन कुछ मित्रों से हुई बातचीत में मुझे ये पता चला मेरे कुछ दोस्त - अगर उन्हें दोस्त मान कर उन पर मैं बहुत ज्यादा अधिकार नहीं जता रहा हूं तो मेरे साथ के अपने थोड़े से संपर्क से इस नतीजे पर पहुंचाना चाहते हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर बड़ी ज़्यादती कर रहा हूं और यह कि मुझमें कुछ अहम्मन्यता है जिसने मुझे इस अविश्वास के लिए प्रेरित किया है।

इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं - बहरहाल, समस्या गंभीर है। मैं शेखी नहीं बघारता कि मैं इन मानवीय कमजोरियों से एकदम ऊपर हूं।

मैं एक मनुष्य हूं, इससे ज्यादा कुछ होने का दावा कोई भी नहीं कर सकता। मुझमें भी ये कमज़ोरी है। सचमुच अहम्मन्यता मेरे स्वभाव का एक अंग है।

अपने साथियों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहां तक कि मेरे मित्र बटुकेश्वर दत्त भी कभी-कभी मुझे निरंकुश कहा करते थे। कई अवसरों पर तानाशाह कहकर मेरी निंदा की गई। मेरे मित्रों को सचमुच यह शिकायत है कि मैं जाने-अनजाने में अपने विचार दूसरों पर थोपता हूं और अपनी बातें जबरन मनवा लेता हूं। मैं इनकार नहीं करता कि एक हद तक यह बात सच है। इसे अहम्मन्यता भी कहा जा सकता है। हो सकता है, अन्य लोकप्रिय मतों के मुकाबले हमारे मत में मुझे एक समुचित गर्व हो और यह अहंकार नहीं है। अहंकार किसी को अपने ऊपर हो जाने वाले अनुचित गर्व का नाम है। यहां मैं जिस सवाल पर चर्चा करना चाहता हूं, वह यह है कि क्या मैं नास्तिक इसलिए बन गया हूं कि मुझे अपने ऊपर अनुचित गर्व है? अथवा इस विषय के सचेत अध्ययन और काफ़ी सोच-विचार के बाद मैंने ईश्वर पर विश्वास करना छोड़ा है?

तस्वीर : भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त

आगे इस लेख में भगतसिंह बताते हैं कि वे उस सर्वशक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व से इनकार क्यों करते हैं। वे लिखते हैं नास्तिकता के सिद्धांत को अपनाने की दिशा में मुझे मेरी अहम्मन्यता ने प्रेरित नहीं किया है। मैं न तो ईश्वर का प्रतिद्वंदी हूं न उसका अवतार, न स्वयं परमात्मा। उनके दोस्तों ने तो उन्हें यह तक कहा कि दिल्ली बम कांड और लाहौर षड्यंत्र कांड के कारण चले मुकदमों के दौरान मिली लोकप्रियता के कारण वे नास्तिक हो गए हैं।

भगत सिंह कहते हैं, मेरी नास्तिकता इतनी नई चीज़ नहीं। उन्होंने ईश्वर को मानना तभी बंद कर दिया था जब कॉलेज में पढ़ते थे और एक अज्ञात नौजवान थे। भगतसिंह का पालन-पोषण उनके दादा के प्रभाव में हुआ जो कट्टर आर्यसमाजी थे। वे बताते हैं कि आर्यसमाजी और चाहे जो कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। आगे वो बताते हैं कि जब मैंने अध्ययन करना शुरू किया, उससे मेरी पूर्ववर्ती आस्थाओं और मान्यताओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। रहस्यवाद और अंधविश्वास के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं रही। यथार्थवाद हमारा मत बन गया। इस दौरान भगत सिंह ने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, थोड़ा-सा साम्यवाद के जनक मार्क्स को पढ़ा और अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति करने वाले लेनिन, त्रात्स्की तथा अन्य लोगों को खूब पढ़ा। ये सब नास्तिक थे। वे कहते हैं, बाकुनिन की पुस्तक 'ईश्वर और राज्य' अधूरी-सी होने के बावजूद मुझे रोचक लगी। उन्होंने निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक 'सहज ज्ञान' भी पढ़ा जिसमें एक रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अंत तक भगत सिंह इस बात के कायल हो गए कि सारी दुनिया को बनाने, चलाने और नियंत्रित करने वाली सर्वशक्तिमान परमसत्ता के अस्तित्व का सिद्धांत निराधार है।

काकोरी काण्ड षड्यंत्र में हुई गिरफ्तारी और उन मुश्किल परिस्थतियों का जिक्र करते हुए भगत सिंह लिखते हैं कि आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है, यहां तक कि उन्हें खुशग़वार भी बना सकती है। आदमी ईश्वर में बड़ी जबरदस्त राहत और दिलासा पा सकता है। उसके बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना पड़ता है। वे लिखते हैं, परीक्षा की ऐसी घड़ियों में अहम्मन्यता अगर हो भी तो कपूर की तरह उड़ जाती है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता, अगर करता है तो हमें कहना पड़ेगा कि उसमें निरी अहम्मन्यता के अलावा कोई और ताक़त है।

नास्तिकता और अपने अहम्मन्यता की जांच-पड़ताल के दौरान वे प्रचलित मत, विश्वास और महान व्यक्ति या नायक पर भी सवाल उठाते हैं। वे लिखते हैं यह नहीं कि महात्माजी महान हैं इसलिए किसी को उनकी आलोचना नहीं करना चाहिए; क्योंकि वे पहुंचे हुए आदमी हैं इसलिए राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ कह देंगे वह सही ही होगा, यह मानसिक जड़ता है। यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जाती। जब आप ऐसे मत या विश्वास का विरोध करेंगे या आलोचना करेंगे तो जाहिर है लोग अहंकारी कह कर आप का मजाक उड़ाएं।

उन्होंने बताया कि, चूंकि हमारे पूर्वज ने किसी परमसत्ता में - सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास बना लिया था, इसलिए उस विश्वास को या परम सत्ता को चुनौती देने वालों को काफिर और गद्दार कह दिया जाता है।

भगतसिंह के विचार

भगतसिंह रहस्यवाद और अंधविश्वास पर तंज कसते हुए कहते हैं कि मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता। मैं यथार्थवादी हूं। वे कहते हैं जहां सीधे प्रमाण नहीं मिलते वहां दर्शन हावी हो जाता है। वे लिखते हैं, "यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी। यदि विश्वास विवेक की आंच बर्दाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जायेगा।"

इसके साथ ही भगत सिंह सकारात्मक कार्य का भी जिक्र करते हुए कहते हैं मैं इस विषय का ज्यादा अध्ययन नहीं कर पाया, मगर जहां तक नकारात्मक पक्ष का संबंध है, मैं पुराने विश्वास के सही होने की बात पर प्रश्नचिन्ह लगाने का कायल हो चुका हूं।

वे आस्तिकता पर सवाल उठाते हुए आस्तिकों से सवाल पूछते हैं कि यदि आप के विश्वास के अनुसार कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर है, जिसने इस पृथ्वी या दुनिया की सृष्टि की तो कृपया ये बताइए कि उसने ऐसा क्यों किया?

उसने ऐसी दुनिया ही क्यों बनाई जिसमें तमाम दुःख हैं, तकलीफें हैं, जिसमें वास्तविक जीवन की त्रासदियों का एक अनंत सिलसिला है और जिसमें एक भी प्राणी पूरी तरह संतुष्ट नहीं है?

उनके सवाल हमारे पीछे कई सवाल छोड़ जाते हैं। वे पूछते हैं ईश्वर ने यह दुनिया बनाई ही क्यों, जो साक्षात नर्क है, जो अनंत तल्ख़ बेचैनी का घर है? वे इस लेख में समाज के जाति व्यवस्था और अमीरी-गरीबी पर भी प्रहार करते हैं। किसी गरीब और अनपढ़ चमार या भंगी के घर पैदा होने वाले आदमी की नियति आप के ख़्याल से क्या होगी? तथाकथित ऊंची जाति में पैदा होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले उसके संगी-साथी उससे नफ़रत करते हैं और अछूत मानकर उसे अलग-थलग रखते हैं। उसकी गरीबी, अज्ञानता और समाज में उसके साथ किए जाने वाले बरताव के कारण उसका कठोर हृदय अगर कोई पाप करता है, तो उसकी सजा कौन भुगतेगा? ईश्वर? वह स्वयं, या समाज के ज्ञानवान लोग?

आगे इसपर वे तर्क देते हैं - मेरे प्यारे दोस्तों, ये सिद्धांत विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के मनगढ़ंत सिद्धांत हैं। वे इन सिद्धांतों के जरिए जबरदस्ती हथियाई हुई अपनी शक्ति, संपन्नता और श्रेष्ठता को उचित ठहराते हैं।

वे कहते हैं आप इनसान के पैदा होने के बारे में जानने के लिए चार्ल्स डार्विन को पढ़िए। यह एक प्राकृतिक घटना है। विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न 'निहारिका' से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। डार्विन की पुस्तक 'जीवों की उत्पत्ति' पढ़िए।

भगत सिंह लिखते हैं, 'प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से संबंधित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करें और उसे चुनौती दे।

प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अंतरे की विवेकपूर्ण जांच-पड़ताल उसे करनी होगी। यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच विचार के बाद किसी सिद्धांत या दर्शन में विश्वास करता है तो उसके विश्वास का स्वागत है।'

आगे अपने लेख को खत्म करते हुए वे लिखते हैं मेरे दोस्तों, यह अहम्मन्यता नहीं है। यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बना दिया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास करने और रोज प्रार्थना करने से, जिसे मैं आदमी का सबसे स्वार्थपूर्ण और घटिया काम समझता हूं - मुझे राहत मिलती या मेरी हालत और भी बदतर हुई होती। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने साहसपूर्वक सारी मुसीबतों का सामना किया। उन्हीं की तरह मैं भी कोशिश कर रहा हूं कि आख़िर तक फांसी के तख्ते पर भी, मर्द की तरह सिर ऊंचा किए खड़ा रहूं।

भगतसिंह का यह लेख वैचारिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इसे सबको जरूर पढ़ना चाहिए। यह लेख आपको चीज़ों को नए सिरे से सोचने के लिए विवश करेगा और आपके सामने कई सवाल खड़े करेगा जिनके जवाब आपको ढूंढते रहना चाहिए ताकि आप जिंदा और प्रगतिशील बने रहें।

:~ सौम्या राज

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